Geeta from 1 to 6 Chapter गीता अध्याय 1 से 6 तक

Geeta from 1 to 6 Chapter गीता अध्याय 1 से 6 तक

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

शनिवार, 1 सितंबर 2012

प्रथम अध्याय: अर्जुन विषाद योग ( भूमिका ) Chep.I.Arjun's dipreshan activity ( Preface)

धृत राष्ट्र उवाच

 धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे  समवेताः युयुत्सवः 

धर्म क्षेत्र और कर्म क्षेत्र में एक साथ इकठ्ठे हुए युद्ध को उत्सुक 

मामकाः पाण्डवा: च  एव  किम अकुर्वत संजय ।। 1/1 ।।

 मेरे और पांडव के भी, पुत्रो ने,  अकुर्वत न करने योग्य,क्या कर्म (कूबद ) की  है। 

 संजय उवाच 

दृष्ट्रवा  तु  पाण्डवानीकम  व्युढ़म  दुर्योधनः  तदा 

देख कर पांडवों की तरफ की सेना की व्यूह रचना को दुर्योधन ने तब 

आचार्यम  उपसंगम्य   राजा   वचनं   अब्रवीत             ।। 1/2 ।।

आचार्य ( द्रोण ) के बाजू में खड़े राजा (दुर्योधन ) ने (अब्रवीत)  लापरवाही से कहा

पश्य   एताम   पांडुपुत्राणाम  आचार्य   महतीम चमूम 

 देखिये  आचार्य ! इस पांडू पुत्रों की महत्त्व पूर्ण चहुँमुखी 

व्युढाम  द्रुपदपुत्रेण  तव   शिष्येण   धीमता         ।। 1/3 ।।

सैन्य   व्युहरचना को, द्रुपद के पुत्र आपके शिष्य की बुद्धिमता

अत्र   शूरा:  महेष्वासा:  भीमार्जुन  समा:  युधि 

यहाँ शूरवीर महा धनुषधारी भीम और अर्जुन समान योद्धा

युयुधान:   विराट:   च  द्रुपद:  च  महारथ:           ।। 1/4  ।।

युयुधान और विराट और द्रुपद जैसे महारथी

धृष्टकेतु:   चेकितान:  काशिराज:  च  वीर्यवान 

दृष्टकेतु चेकितान  और काशिराज जैसे वीर्यवान वीर 

पुरूजित   कुन्ति  भोज:  च   शैव्य:  च नर पुंगव :   ।।  1/5  ।।

पुरुजीत और कुन्तिभोज और शैव्य जैसे नरपुंगव(बहुत से लोगों से अकेले पंगा लेने वाले)

 युधामन्यु:  च   विक्रांत:  उत्तमौजा:  च  वीर्यवान 

और युद्धामंयु विक्रांत  उत्तमौजा जैसे वीर्यवान 

सौभद्र:   द्रौपदेया: च  सर्वे    एव    महारथा:        ।।  1/6  ।।

सुभद्रा पुत्र और द्रोपदी के सभी महारथी पुत्र 

अस्माकं   तु   विशिष्टा:  ये   तान  निबोध  द्विजोतम 

अपनी तरफ के भी विशिष्ट जो भी हैं इन्हें भी निर्विध्न समझिये द्विजों में उत्तम आचार्य !

नायका:  मम  सैन्यस्य  संज्ञार्थं  तान  ब्रवीमि  ते  ।।  1/7  ।।

नायक (हीरो ) जो मेरे तरफ की सेना के हैं  उनके संज्ञा नाम बताता हूँ आपको 

भवान  भीष्म: च  कर्ण: च  कृप: च  समितिंजय: 

आप खुद भीष्म और कर्ण और आचार्य कृप जैसे जो अकेले ही इस सीमित सेना पर जय करने वाले  हैं  

अश्वत्थामा  विकर्ण: च सौमदत्ति:  तथा  एव च ।।  1/8  ।।

अश्वस्थामा और विकर्ण और  सोमदत्त के पुत्र भी तथा 

अन्ये च बहव: शुरा: मदर्थे  त्यक्तजीविता:

अन्य बहुत सारे शूर हैं,  मेरे लिए जीवित रहने तक लड़ने वाले 

नाना शस्त्र प्रहरणा: सर्वे  युद्ध  विशारदा:          ।।  1/9  ।।

आनेकानेक प्रकार के शस्त्रों से प्रहार करने में निपूण युद्ध विशारद 

अपर्याप्तं तत  अस्माकं  बलम  भीष्माभिरक्षितम

अपर्याप्त(दूर दूर तक फैल़ा हुआ) है अपनी तरफ का बल जो भीष्म द्वारा रक्षित भी तो है।

पर्याप्तं   तु   इदं  एतेषां  बलम भीमाभिरक्षितं ।।   1/10  ।।

पर्याप्त (चारों तरफ से आप्त,घिरा हुआ सा )इनका यह बल भीम द्वारा रक्षित है 

अयनेषु  च    सर्वेषु   यथाभागम अवस्थिता:

और सभी मोर्चों पर उचित भूभाग पर अवस्थित हुए  

भीष्मं  एव अभिरक्षन्तु भवंत: सर्वे एव हि   ।।  1/11  ।।

आप भीष्म द्वारा सभी रक्षित हैं।

तस्य  संजनयन  हर्षम  कुरु वृद्ध:  पितामह:

तब उसके हर्ष उत्पन्न करने के लिए कुरु वृद्ध पितामह ने 

सिंहनादं  विनद्य  उच्चै: शंखं  दध्मौ  प्रतापवान ।।  1/12  ।।

सिंह की दहाड़ के समान नाद पैदा करते हुए उच्चध्वनी विस्तारक शंख बजाया प्रतापी ने 

तत:  शंखा:  च  भेर्य: च   पणवानक गोमुखा: 

तब फिर शंख, नगारे,तुरई  ढ़ोल ,मृदंग 

सहसा एव अभ्यहन्यन्त  स: शब्द: तुमुल: अभवत  ।।  1/13  ।।

भी सहसा एक साथ तुमुल ध्वनी (मिलीजुली ध्वनी ) कर के बज उठे .

ततः श्वेतै:  हयैः युक्ते  महति  स्यन्दने  स्थितौ  

तभी वहां श्वेत घोड़ों महत रथ में स्थित  हुए 

माधव: पाण्डवः  च  एव  दिव्यौ  शन्खौ  प्रदध्मतु:   ।।  1/14  ।।

माधव और पांडव ने भी दिव्य शंख बजाये 

पान्चजन्यम  हृषीकेशः   देवदत्तं  धनञ्जय:

पान्चजन्य को हृषिकेश ने देवदत्त को धनञ्जय ने 

पौण्ड्रम  दध्मौ  महाशंखं  भीम कर्मा  वृकोदर: ।।   1/15  ।।

पौंड्र  महाशंख बजाय़ा भारी भरकम काम करने वाले वृकोदर ने 

अनंत विजयं  राजा कुंती पुत्र युधिष्ठिर:

अनंत विजय बजाया  कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने 

नकुल: सहदेवः च सुघोष मणिपुष्पकौ         ।।  1/16  ।।

नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक 

काश्यः च परमेष्वासः शिखंडी च महारथः 

परम धनुषधारी काशिराज और महारथी शिखंडी 

धृष्टद्युम्न  विराट:   च  सात्यकि: च  अपराजितः ।।  1/17  ।।

धृष्टद्युम्न, विराट, और सात्यकि जैसे अपराजित  रहने वाले

द्रुपदः द्रौपदेया: च  सर्वश: पृथिवीपते

 द्रुपद और  द्रोपदी के सभी पृथ्वीपति पुत्रों ने 

सौभद्र: च   महाबाहू:शंखान दध्मु: पृथक पृथक  ।।  1/18  ।।

और माहाबाहू सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु ने अलग अलग शंख बजाये।

सः घोषः  धार्त राष्ट्राणाम   हृदयानि व्यदारयत 

उस  ध्वनी घोष ने धृतराष्ट्र के  पक्ष के ह्रदय विदीर्ण कर दिए  

नभः  च पृथिवीम च  एव    तुमुलः व्यनुनादयन .।।  1/19  ।।

और नभ और पृथ्वी के बीच तुमुल नाद अनुनाद पैदा कर दिया 

अथ  व्यवस्थितान  दृष्टवा  धार्तराष्ट्रान  कपिध्वज:

उस समय व्यवस्थित देख कर धार्त राष्ट्रों को, कपिध्वज वाले रथपर सवार 

प्रवृत्ते   शस्त्रसम्पाते  धनुः  उद्यम्य  पाण्डवः          ।।1/20  ।।

पांडव,  धनुष नामक  शस्त्र को संभाल कर, उद्यम को प्रवृत हुआ 

हृषीकेशम  तदा  वाक्यं  इदं  आह   महीपते 

 तब फिर हृषिकेश को महिपते (अर्जुन )ने यह वाक्य कहा 

अर्जुन-उवाच

सेनयो: उभयो:  मध्ये  रथं  स्थापय  मे अच्युत      ।।  1/21  ।।

अच्युत  !  उभय पक्षी सेना के मध्य मेरे रथ को खड़ा करो ।

यावत्  एतान  निरीक्षे  अहम्  योद्धुकामान  अवस्थितान  

जब तक इन युद्ध की कामना से इकठ्ठे हुए योद्धाओं का निरिक्षण करूँ रथ खड़ा रखना 

कैः  मया  सह  योद्धव्यम  अस्मिन  रणसमुद्यमे    ।।  1/22   ।।

किस किस के साथ मुझे युद्ध करना है, कोन कोन रण में सम उद्द्यत हैं 

योत्स्यमानान  अवक्षे अहम्  ये  एते  अत्र समागताः 

 युद्ध को ही अधिकार मानने वालों को आमने सामने देखुं जो जो यहाँ एक साथ हैं

धार्तराष्ट्रस्य  दुर्बुद्धे: युद्धे  प्रियचिकीर्षवः                ।।  1/23  ।। 

राष्ट्र के प्रति धृति वाले इन दुर्बुद्धि वालों की  युद्ध ही   प्रिय अभिलाषा  हैं।

 संजय उवाच  

एवम  उक्तः    हृषीकेश:  गुडाकेशेन  भारत  

इस प्रकार से उक्त कहते हुए हृषिकेश ने  निद्रा को जीतने वाले (अनिंद्रा रोगी )गुड़ाकेश भारत  को  कहा 

सेनयो:  उभयो: मध्ये  स्थापयित्वा   रथोत्तमम    ।।  1/24 ।।

दोनों उभयपक्षी सेना के मध्य  उत्तमरथ को  स्थापित करके 

भीष्म  द्रोण  प्रमुखतः   सर्वेषाम  च   महीक्षिताम  

प्रमुखत: भीष्म द्रोण  और सभी प्रमुख महाराजों के सामने देखते हुए  

उवाच  पार्थ  पश्य  एतान  समवेतान  कुरून   इति  ।।   1/25  ।।

पार्थ से  कहा ; देख इन एक साथ जुटे हुए कोरवों को 

तत्र  अपश्यत  स्थितान  पार्थः  पित्रिन   अथ  पितामहान  

तब पार्थ ने वहां उपस्थितों को देखा कि यहाँ तो पितामह सहित पूरा पितृकुल  है  

आचार्यान  मातुलान  भ्रात्रिन  पुत्रान पौत्रान सखीन तथा ।। 1/26 ।।

आचार्य मातृकुल  भाई पुत्र पोत्र सखा सम्बन्धी तथा 

श्वशुरान  सुहृदः  च  एव  सेनियो: उभयो:  अपि   

श्वसुर और सुहृदयी भी दोनों पक्षों में है।

तान  समीक्ष्य  स: कौन्तेयः  सर्वान  बंधून अवस्थितान।।1/27 ।।

उन उपस्थित सभी बंधू बांधवों की  समीक्षा करता  हुआ   कौन्तेय 

कृपया  परया   आविष्ट:  विषीदन  इदम   अब्रवीत   

करुणा से पूरी तरह आवेशित  विष का घूँट  पिते  हुआ सा बोला 

  अर्जुन-उवाच  

दृष्ट्रवा  इमम स्वजनं  कृष्ण  युयुत्सुम  सम उपस्थितम  ।। 1/28 ।।

देख कर इन तमाम स्वजनों को कृष्ण ! युद्ध को उत्सुक सम उपस्थितों को 

सीदन्ति  मम   गात्राणि   मुखंम  च  परिशुष्यति  

दाँत कटकटा  रहे हैं अंग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा हैं। 

वेपथुः   च   शरीरे   मे   रोमहर्ष   च    जायते              ।।   1/29   ।।

और मेरा शरीर कांप रहा है और रोंगटे खड़े हो गए हैं।

गाण्डीवं   संत्रसते   हस्तात  त्वक  च  एव  परिदह्यते

गांडीव हाथ से फिसल रहा है और त्वचा भी जल रही है।

न  च  शंक्रोमि  अवस्थातुम  भ्रमति   इव  च मे  मनः  ।।  1/30  ।।

और न तो इस अवस्था में खड़ा रहने में समर्थ हूँ और मेरा मन भी भ्रमित हो रहा है .

निमित्तानि  च  पश्यामि   विपरीतानि   केशव  

(युद्ध का ) निमित भी विपरीत देख रहा हूँ केशव !

न   च  श्रेयः  अनुपश्यामि  हत्वा  स्वजनम  आहवे   ।।  1/31   ।।

और न यह श्रेयकर  देख रहा हूँ स्वजनों की ह्त्या का आह्वान 

न  कान्क्षे   विजयं  कृष्ण  न  च   राज्येम  सुखानि  च  

नहीं आकांक्षा विजय की कृष्ण !और  न  ही राज्य के सुख की 

किम  न:  राज्येन  गोविन्द  किम  भोगै: जीवितेन  वा  ।। 1/32  ।।

कैसा हमें राज्य से  गोविद ! कैसा जीवन के भोगों से  प्रयोजन 

येषां  अर्थे कांक्षितम  नः  राज्यं  भोगाः  सुखानि  च 

जिन के हितार्थ आकांक्षा करते हैं हम राज्य के भोगों की और सुखकी  

ते  इमे  अवस्थिताः  युद्धे  प्राणान  त्यक्त्वा  धनानि  च ।। 1/33 ।।

वे सब तो अवस्थित हैं युद्ध में प्राण और धन त्याग कर  और 

आचार्याः पितरः पुत्राः तथा  एव  च  पितामहा: 

आचार्य और चाचा ताऊ पितर पुत्र तथा पितामह भी 

मातुलाः श्वशुरा:  पौत्राः  श्यालाः सम्बंधिन:  तथा    ।।  1/34  ।।

मामा  श्वसुर पोते साले सम्बन्धी तथा 

एतान  न हन्तुम  इच्छामि  घ्नतः  अपि मधुसूदन

इन सब को कभी नहीं  मारने की  इछा!   मारना भले ही   मधुसुदन !

अपि  त्रैलोक्यराज्यस्य  हेतो:  किम नु महीकृते       ।।   1/35   ।।

त्रिलोकी  के  राज्य के  हेतु भी हो तो फिर उपजाऊ भूमि के लिए तो क्या ?

निहत्य  धार्त राष्ट्रां  नः  का प्रीति:  स्यात  जनार्दन 

मारना  धृतराष्ट्र के पुत्रों को हमें कैसे  प्रिय लगेगा जनार्दन !

पापं  एव  आश्रयेत   अस्मां हत्वा एतां  आततायिनः     ।। 1/36   ।।

पाप का ही आश्रय है हमारे लिए इन आततायियों की ह्त्या 

तस्मात्  न  अर्हा:  वयं  हन्तुम   धार्तराष्ट्रां स्वबान्धवान 

इस  तरह  नहीं योग्य  हम मारने के  लिए धृतराष्ट्र के पुत्रो व् बंधू बांधवों को  

स्वजनं  ही कथं हत्वा   सुखिनः स्याम  माधव     ।। 1/37  ।।

क्योंकि कहो स्वजनों की कैसे ह्त्या करके सुखी होंगे  माधव !

यद्यपि   एते  न  पश्यन्ति लोभ अपहत   चेतसः 

यद्यपि ये लोग नहीं देख प़ा रहे लोभ द्वारा आहत हुई चेतना  के कारण 

कुलक्षय कृतं  दोषम  मित्र द्रोहे च पातकं     ।।  1/38  ।।

कुल का क्षय करने वाले दोष को और मित्र द्रोह के पाप को 

कथं  न ज्ञेयं  अस्माभि:   प़ापात  अस्मात  निवर्तितुम 

कहो क्यों नहीं जानते हम लोग इस पाप से निवर्त होने का मार्ग 

कुलक्षय  कृतं   दोषम  प्रपश्यद्भी: जनार्दन    ।।  1/39 ।।

कुल के क्षय के दोष पूर्ण कार्य को देख जान कर भी जनार्दन !

कुलक्षये  प्रणश्यन्ति   कुलधर्मा:  सनातनाः 

कुल के क्षय से नष्ट हो जाते हैं सनातन कुलधर्म

धर्मे  नष्टे  कुलं  कृत्स्नंम  अधर्म:  अभिभवती उत   ।।  1/40   ।।

कुल के धर्म नष्ट हो जाने पर सारे  कुल में अधर्म फ़ैल जाएगा 

अधर्म  अभिभवात  कृष्ण  प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः
अधर्म के बढ जाने से कृष्ण !प्रदूषित हो जाती है कुल की स्त्रियाँ  

स्त्रीषु   दुष्टासु  वार्ष्णेय  जायते  वर्णसंकर:         ।।   1/41   ।।

 स्त्रियाँ जब दुष्ट हो जाती है तो जन्मते वर्ण संकर 

संकर:  नरकाय  एव   कुलन्घानाम  कुलस्य च 

वर्ण संकर नरक में ले जाते हैं,  कुलघाती, कुल को ही 

पतन्ति   पितर:  हि  एषां  लुप्त पिण्डोदक क्रिया:  ।।   1/42   ।।

पतन हो जाता है पितरों का क्योंकि ऐसे में पिण्ड दान क्रिया लुप्त हो जाती है।

दोषैः  एतै:   कुलघ्नानाम    वर्णसंकरकारकै:

इन   कुलघातियों के वर्ण संकर कारक दोषों से 

उत्साद्यन्ते   जातिधर्मा:  कुलधर्मा:  च शाश्वता:     ।।   1/43   ।।

उत्सर्जित  हो जाते है जाति धर्म और शास्वत कुल धर्म 

उत्संन्न कुलधर्माणाम  मनुष्याणाम   जनार्दन 

उठ जाते हैं कुलधर्म मानुष्यों  के जनार्दन 

नरके अनियतम  वासः  भवति  इति  अनुशुश्रुम   ।।  1/44   ।।

तो नरक में नियत के विपरीत वास करते हैं ऐसा सुनते आये हैं 

अहो   बत महत पापम   कर्तुम  व्यवसिता: वयं 

अहो बहुत महत पाप करने वाला व्यवसाय हम 

यत राज्य सुख लोभेन  हन्तुम  स्वजनं  उद्यताः    ।।   1/45 ।।

जो कि राज्य के  सुख के लोभ में स्वजनों को मारने को उद्यत हो गए  

यदि माम  अप्रतिकारम   अशस्त्रं   शस्त्रपाणयः

यदि मुझ शस्त्रहीन अप्रतिकारी को शस्त्र धारण किये  हुए

धार्तराष्ट्रा:  रणे  हन्तु:  तत  मे  क्षेमतरम  भवेत्   ।।    1/46  ।।

धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार दें तब भी मेंरे लिए  कुशल क्षेम होगा 

संजय उवाच

एवं   उक्त्वा   अर्जुन:  संख्ये रथोपस्थे   उपाविशत 

इस प्रकार अर्जुन ने सैद्धान्तिक धारणा बता कर रथ के पीछे के भाग पर बैठ गया 

विसृज्य सशरम   चापं शोक संविग्र मानस:   ।।  1/47   ।।    
उतार कर बाण सहित धनुष को  शोक से संवेदित मानसिकता से  

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे$र्जुनविषादयोगो नाम प्रथमो$ध्यायः 

 ॐ आकार ही तत  अपरिमेय विशाल क्षेत्र में फैले हुए तत्व का वह सत है जो ब्रह्म को बांधता है।इति  बस इतना सा सत्य है।

        ॐ आकार को लेकर सबसे अधिक प्रकार की  भ्रांतियां फैली हुई है।एक इस सच्चाई को प्रति क्षण ध्यान में रखें कि इस अपने आपके शरीर और देह में ही वह सभी कुछ है जिसका वर्णन आप वेद-उपनिषदों शास्त्रों में पढ़ते सुनते आये हैं।ॐ आकार मनुष्य के देह में स्थित शरीर की आकृति है . जिस तरह काम का श्री गणेश करते हैं तो बुद्धि के देवता गणेश की पूजा करते हैं .बिस्मिल्लाह करते हैं .उसी तरह जब कार्य संपन्न हो जाता है तो उसे ॐ तत सत कह कर समाप्त किया जाये तो वह मानव मात्र के लिए कल्याणकारी हो जाता है। 

 श्री मत यह वह मत है जो श्री ( सम्पन्नता समृधि )और श्रेय (प्रिय एवं उचित फल ) देता है क्योंकि यह भगवत भगवान  द्वारा निर्मित ( प्रकृति प्रदत ) इस जगत की  सर्वश्रेष्ट रचना (मनुष्य योनी की देह ) के बारे में अशेशेण कहा गया यह मत जो है वह   गीता  गीत की तरह ग़ाया जाता है।उपनिषद् सु यह भी  सभी अन्य उपनिषदों की तरह ही गुरु-शिष्य की व्यक्तिगत वार्ता के रूप में एक आख्यान है । ब्रह्म विद्या  ब्रह्मविद्या ( साईको टेक्नोलोजी ) का  योग उपयोग-प्रयोग-व्यवहार में लाने का   शास्त्र सेन्स और साईंस की  उभय पक्षी जानकारी है। श्री कृष्ण अर्जुन संवाद जो श्री कृष्ण अर्जुन के बीच संवाद /डाईलोग के रूप में हैं अर्जुन विषाद योग नाम प्रथम अध्याय   अर्जुन विषाद योग नाम से यह प्रथम अध्याय है .