Geeta from 1 to 6 Chapter गीता अध्याय 1 से 6 तक

Geeta from 1 to 6 Chapter गीता अध्याय 1 से 6 तक

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

विषाद योग व्याख्या; श्लोक संख्या 21 से 23 तक

अर्जुन-उवाच

सेनयो: उभयो:  मध्ये  रथं  स्थापय  मे अच्युत      ।।  1/21  ।।

अच्युत  !  उभय पक्षी सेना के मध्य मेरे रथ को खड़ा करो ।

यावत्  एतान  निरीक्षे  अहम्  योद्धुकामान  अवस्थितान  

जब तक इन युद्ध की कामना से इकठ्ठे हुए योद्धाओं का निरिक्षण करूँ रथ खड़ा रखना 

कैः  मया  सह  योद्धव्यम  अस्मिन  रणसमुद्यमे    ।।  1/22   ।।

किस किस के साथ मुझे युद्ध करना है, कोन कोन रण में सम उद्द्यत हैं 

योत्स्यमानान  अवक्षे अहम्  ये  एते  अत्र समागताः 

 युद्ध को ही अधिकार मानने वालों को आमने सामने देखुं जो जो यहाँ एक साथ हैं

धार्तराष्ट्रस्य  दुर्बुद्धे: युद्धे  प्रियचिकीर्षवः                ।।  1/23  ।। 

राष्ट्र के प्रति धृति वाले इन दुर्बुद्धि वालों की  युद्ध ही  चित्त को आकर्षित  करने वाली  प्रिय अभिलाषा  हैं।

अर्जुन-उवाच


अच्युत  ! इस उभय पक्षी सेना के मध्य मेरे रथ को खड़ा करो।


इस सेना के दोनो पक्ष उभय -पक्षी है अर्थात जिस तरह पक्षी के दोनों पंख परस्पर पूरक होते हैं उसी तरह गणराज्य व्यवस्था वाला प्राकृतिक  उत्पादक ग्रामीण और वनक्षेत्र  धर्मक्षेत्र कहलाता है क्योंकि वहाँ धन-धान्य का उत्पादन सनातन धर्म चक्र Ecology cycle से होता है तथा साम्राज्य व्यवस्था वाले  राष्ट्र में वेतन भोगी कर्मचारी व्यवस्था और अनुबन्ध व्यवस्था होती है जिसमे काम के एवज में अर्थ की प्राप्ति होती है अतः यह कुरु [कर्म ] क्षेत्र कहा गया है। यह गृहयुद्ध है जिसमे एक तरफ राष्ट्रिय सेन्य बल है तो दूसरी तरफ गणराज्यों के किसान-क्षत्रिय हैं। 

जब तक इन युद्ध की कामना से इकठ्ठे हुए योद्धाओं का निरिक्षण करूँ रथ खड़ा रखना किस किस के साथ मुझे युद्ध करना है, कोन कोन रण में सम उद्द्यत हैं,  युद्ध को ही अधिकार मानने वालों को आमने सामने देखुं जो जो यहाँ एक साथ हैं, राष्ट्र के प्रति धृति वाले इन दुर्बुद्धि वालों की, कि युद्ध ही इनकी प्रिय अभिलाषा  हैं।

महाभारत के गृह युद्ध के बाद चाणक्य के शिष्यत्व में किसान से योद्धा बने चन्द्रगुप्त ने, फिर किसान से योद्धा बने विक्रमादित्य ने,फिर हर्षवर्धन द्वारा शुरू करवाये गए यज्ञ में चार किसान व् वनवासी जातियों से योद्धा बनी रजपूत जाति ने भारत को राष्ट्रवादी धार्तराष्ट्रों से गणराज्य भारत को मुक्त कराया था। इस विषय में आपने सामाजिक पत्रकारिता ब्लॉग में कुछ-कुछ विस्तार से पढ़ लिया होगा। 

 आज भारत पुनः साम्राज्यवादी राष्ट्र और ग्रामीण-वनवासी भारत के बीच उभय-पक्षी स्थिति में आ खड़ा हुआ है। एक तरफ दुर्बुद्धि राष्ट्रिय राजनीति और सरकार है जो सोचती है की युद्ध [ पुलिस या सैन्य कार्यवाही ] से ही विद्रोहियों को काबू में किया जा सकता है। धृतराष्ट्र व् दुर्योधन की तरह इनकी धृति में भी वार्ता और समझोता की शर्तें देश हित में नहीं है। बल्कि किसानों के आन्दोलनों पर  सेन्य कार्यवाही ही चित्ताकर्षक लगती है।


विषाद योग व्याख्या; श्लोक 12 से 20 तक

तस्य  संजनयन  हर्षम  कुरु वृद्ध:  पितामह:
तब उसके उत्पन्न करने के लिए हर्ष  कुरु वृद्ध पितामह ने 
सिंहनादं  विनद्य  उच्चै: शंखं  दध्मौ  प्रतापवान ।।  1/12  ।।
सिंह की दहाड़ के समान नाद पैदा करते हुए उच्चध्वनी विस्तारक शंख बजाया प्रतापी ने 
तत:  शंखा:  च  भेर्य: च   पणवानक गोमुखा:
तब फिर शंख, नगारे,तुरई  ढ़ोल ,मृदंग 
सहसा एव अभ्यहन्यन्त  स: शब्द: तुमुल: अभवत  ।।  1/13  ।।
भी सहसा एक साथ तुमुल ध्वनी (मिलीजुली ध्वनी ) कर के बज उठे .
ततः श्वेतै:  हयैः युक्ते  महति  स्यन्दने  स्थितौ  
तभी वहां श्वेत घोड़ों से युक्त महत रथ में स्थित  हुए 
माधव: पाण्डवः  च  एव  दिव्यौ  शन्खौ  प्रदध्मतु:   ।।  1/14  ।।
माधव और पांडव ने भी दिव्य शंख बजाये 
पान्चजन्यम  हृषीकेशः   देवदत्तं  धनञ्जय:
पान्चजन्य को हृषिकेश ने देवदत्त को धनञ्जय ने 
पौण्ड्रम  दध्मौ  महाशंखं  भीम कर्मा  वृकोदर: ।।   1/15  ।।
पौंड्र  महाशंख बजाय़ा भारी भरकम काम करने वाले वृकोदर ने 
अनंत विजयं  राजा कुंती पुत्र युधिष्ठिर:
अनंत विजय बजाया  कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने 
नकुल: सहदेवः च सुघोष मणिपुष्पकौ         ।।  1/16  ।।
नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक 
काश्यः च परमेष्वासः शिखंडी च महारथः 
परम धनुषधारी काशिराज और महारथी शिखंडी 
धृष्टद्युम्न  विराट:   च  सात्यकि: च  अपराजितः ।।  1/17  ।।
धृष्टद्युम्न, विराट, और सात्यकि जैसे अपराजित  रहने वाले
द्रुपदः द्रौपदेया: च  सर्वश: पृथिवीपते 
द्रुपद और  द्रोपदी के सभी पृथ्वीपति पुत्रों ने 
सौभद्र: च   महाबाहू:शंखान दध्मु: पृथक पृथक  ।।  1/18  ।।
और माहाबाहू सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु ने अलग अलग शंख बजाये।
सः घोषः  धार्त राष्ट्राणाम   हृदयानि व्यदारयत 
उस  ध्वनी घोष ने धृतराष्ट्र के  पक्ष के ह्रदय विदीर्ण कर दिए  
नभः  च पृथिवीम च  एव    तुमुलः व्यनुनादयन .।।  1/19  ।।
और नभ और पृथ्वी के बीच तुमुल नाद अनुनाद पैदा कर दिया 
अथ  व्यवस्थितान  दृष्टवा  धार्तराष्ट्रान  कपिध्वज:
उस समय व्यवस्थित देख कर धार्त राष्ट्रों को, कपिध्वज वाले रथपर सवार 
प्रवृत्ते   शस्त्रसम्पाते  धनुः  उद्यम्य  पाण्डवः          ।।1/20  ।।
पांडव,  धनुष नामक  शस्त्र को संभाल कर, उद्यम को प्रवृत हुआ 
हृषीकेशम  तदा  वाक्यं  इदं  आह   महीपते  
तब फिर हृषिकेश को महिपते (अर्जुन )ने यह वाक्य कहा 



तब उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करने के लिए कुरु वृद्ध प्रतापी पितामह ने सिंह की दहाड़ के समान नाद पैदा करते हुए उच्चध्वनी विस्तारक शंख बजाया। तब फिर शंख, नगारे, तुरई  ढ़ोल , मृदंग भी सहसा एक साथ तुमुल ध्वनी (मिलीजुली ध्वनी ) कर के बज उठे। 

तभी वहां श्वेत घोड़ों से युक्त महत रथ पर  स्थित हुए माधव और पांडव ने भी दिव्य शंख बजाये। पान्चजन्य को हृषिकेश ने। देवदत्त को धनञ्जय ने।  पौंड्र  महाशंख बजाय़ा  भारी भरकम काम करने वाले वृकोदर ने।  अनंत विजय बजाया  कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने।  नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक। परम धनुषधारी काशिराज और महारथी शिखंडी,  धृष्टद्युम्न, विराट, और सात्यकि जैसे अपराजित  रहने वाले,  द्रुपद और  द्रोपदी के सभी पृथ्वीपति [Land lord,भूस्वामी ] पुत्रों ने और माहाबाहू सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु ने अलग अलग शंख बजाये।  उस  ध्वनी घोष ने धृतराष्ट्र के पक्ष के ह्रदय विदीर्ण कर दिए। उस एक साथ,एक समय और एक स्थान पर बजने वाले युद्धघोषक ध्वनियों ने नभ और पृथ्वी के बीच तुमुल नाद अनुनाद पैदा कर दिया उस समय कपिध्वज वाले रथपर सवार पांडव ने  धार्त राष्ट्रों को व्यवस्थित देख कर,  धनुष नामक शस्त्र को संभाल कर अर्जुन उद्यम करने को प्रवृत हुआ।  तब फिर हृषिकेश को महिपते (अर्जुन ) ने यह वाक्य कहा:-


व्याख्या :-


इस में व्याख्या करने लायक विशेष कुछ नहीं है फिर भी बहुत कुछ है। आज मानव निर्मित ध्वनी विस्तारक यंत्रों से या तो तेज ध्वनी निकल सकती है या फिर स्वर लहरी फिर दोनों को मिलाया जाता है। जबकि शँख समुद्र में पाये जाने वाले घोंघों के कवच होते हैं। इस प्रकृति निर्मित ध्वनी-विस्तारक यंत्र से स्वतः ही विशिष्ट स्वर लहरी निकलती है। शँख बजाने के लिए बड़े मजबूत श्वसन अंगों की आवश्यकता होती है। शँख की ध्वनी को शँखनाद भी कहा जाता है।

नाद तब पैदा होता है 1.जब एक साथ एक से अधिक ध्वनियाँ एक ही स्थान में पैदा हो 2. दोनों ध्वनियों की आवृति/ Frequency और तरंग दैर्ध्य /Wavelength एक सामान हो और 3. वे आपस में टकराकर समन्वय कर लेती हो। तब फिर जो नाद पैदा होता है उसकी विशेषता यह होती है कि वह ध्वनी एक क्षण के लिए बन्द हो जाती है और दुसरे ही क्षण गुणात्मक  Multiples and Qualitative both हो जाती है। जैसे की लड़ाकू विमान जब गति पकड़ता है तो एक क्षण ऐसा भी आता है जब वह ध्वनी की गति के बराबर की गति में होता है, उस क्षण वह खुद की ध्वनी से ही टकराता है और विस्फोट जैसी तेज आवाज निकलती है।

आवृति एवं तरंग दैर्ध्य;
जब प्रसंग चल ही पड़ा है तो यह बताना भी प्रासंगिक रहेगा कि मच्छर के पंखों से हवा के टकराने से जो ध्वनी निकलती है उसकी आवृति/ Frequency बहुत अधिक होती है, लेकिन तरंग दैर्ध्य /Wavelength बहुत कम होती है अतः वह तीखी और तेज लगती है लेकिन दूरी तय नहीं कर पाती है। इसके विपरीत सिंह की दहाड़ में आवृति/ Frequency बहुत कम और तरंग दैर्ध्य /Wavelength बहुत अधिक होती है अतः वह तीखी और तेज नहीं लगती जबकि पाँच किलोमीटर दूर भी ऐसे सुनाई देती है जैसे बगल से दहाड़ रहा हो।

रेखा चित्र संख्या 1. में मच्छर के भन्नाने की ध्वनी-तरंगें एवं रेखा चित्र संख्या 2. में सिंह के दहाड़ की ध्वनी-तरंगें। 



रेखा चित्र संख्या - 1
रेखा चित्र संख्या - 2

शंख में पहले फूँक अन्दर जाती है फिर अन्दर ही अन्दर टकराकर नाद पैदा करती है अतः फूँक मारने वाले के फेफड़ों में शक्ति होनी चाहिए यानी शंख बजाने वाले के श्वसन अंगों का शक्ति परिक्षण हो जाता है कि उसका किया शंख-नाद कितनी दूर तक सुनाई दिया। 
एक समय आरती के समय भी शंखनाद ही किया जाता था।
शंख की खुद की आकृति और फूँकने वाले की तकनीक से जो विशिष्ट ध्वनी निकलती है, उससे पता चल जाता है कि किसका शंख बजा है। इस तरह जन संख्या भीड़ में यह ध्वनी, अपनी अलग पहचान / Identity होने की मानव मनोविज्ञान की लालसा को सन्तुष्ट कराती है।

युद्ध की घोषणा पहले कुरु वर्ग करता है तब धर्म के जानकार वर्ग के प्रतिनिधि भी युद्ध की घोषणा करते है।  


ततः श्वेतै:  हयैः युक्ते  महति  स्यन्दने  स्थितौ 
माधव: पाण्डवः  च  एव  दिव्यौ  शन्खौ  प्रदध्मतु:   ।।  1/14  ।।
इसके अनन्तर सफ़ेद घोडों से युक्त उत्तम रथ में स्थित हुए माधव और पाण्डव ने भी अलौकिक शंख बजाये ।।14।।

तत:                = इसके अनन्तर
श्वेतै:                = सफ़ेद; 
हयै:                 = धोड़ों से; 
युक्ते                 = युक्त; 
महति              = उत्तम पुरुष संज्ञा वाचक ;   
स्यन्दने            = गतिशील देह में स्थितौ              = स्थित
माधव:  च         = मेधा शक्ति Intellect strength,Brain और 
पाण्डव: एव       =  महाभूतो से बना पिण्ड,शरीर ने दिव्यौ शन्खौ     =  दिव्यास्त्र  प्रदध्मतु:          =  फूंके


वैसे तो यह अध्याय ऐतिहासिक पृष्टभूमि को ही रेखांकित करता है लेकिन इस लाईन में श्वेत हय़ [सफ़ेद घोड़े ] और महति स्यन्द [ उत्तम रथ ] की व्याख्या आवश्यक हो जाती है। मन जिस तरह सभी विषयों का भोग करने की इच्छा से विषयों में दौड़ता रहता है उसी तरह ही घोड़े की दोड़ने की प्रवृति के कारण घोड़े का एक नाम मन्मथ भी है। अनेक रंगों के होने के कारण अश्व कहलाता है उसी तरह जब घोड़ा दौड़ते हुए रुकता है या दौड़ने से मना करता है तो गर्दन हिला कर हिन्हिनाने के की प्रवृति के कारण घोड़े का एक नाम हयः है।
उन्हीं दो श्वेत घोड़ों की लगाम सारथी के हाथ में होती है। दो प्रकार के विरोधाभाषी प्रवृति कि या तो दौड़ेगा तो दौड़ते ही रहेगा या मना कर दिया तो कोई भी मायी का लाल उसे दौड़ा नहीं सकता। ऐसी ही प्रवृति मानव मनोविज्ञान की है। इसीलिए व्यक्ति का  आचरण "सनकी" भी है। 

ये दो हय उस रथ में जुते हुए हैं जो मह तत्व से बना है। वैज्ञानिक शब्दावली में मह वसा को कहा जाता है। वसा की अधिकता वाला दुध देने के लिए क्षेत्रीय भाषा पंजाबी में भैंस को माहि कहा जाता है। शरीर में सक्रीय रासायनिक-ईथर [ R-O-R ] को मह-ईश्वर [महेश्वर ] कहा जाता है। नौवें अध्याय में भगवान अपने महेश्वर रूप के बारे में विस्तार से बताएँगे।


महति    =  महत्वपूर्ण महतत्व Organic Ingredients से बनी देह है उस 
स्यन्दने =  उत्तम पुरुष = मैं वाचक, देह रूपी यंत्र /रथ में ] स्थित एक तो 
माधव    = मेधा शक्ति Intellect strength,Brain है और दूसरा 
पाण्डव  =  अणु परमाणु का संग्रह पिण्ड है।

इस परिप्रेक्ष में अगले अध्याय में स्पस्ट व्याख्या होगी।

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

विषाद योग व्याख्या; श्लोक 10 व् 11 व्याख्या :-


अपर्याप्तं तत  अस्माकं  बलम  भीष्माभिरक्षितम
अपर्याप्त  है अपनी तरफ का बल जो भीष्म द्वारा रक्षित भी तो है।
पर्याप्तं   तु   इदं  एतेषां  बलम भीमाभिरक्षितं ।।   1/10  ।।
पर्याप्त  इनका यह बल भीम द्वारा रक्षित है 
अयनेषु  च    सर्वेषु   यथाभागम अवस्थिता:
और सभी मोर्चों पर उचित भूभाग पर अवस्थित हुए  
भीष्मं  एव अभिरक्षन्तु भवंत: सर्वे एव हि   ।।  1/11  ।।
भीष्म की ही सभी तरफ से रक्षा करें 

अपार्याप्तम् = अ + परि [ चारों तरफ Around ]+ आप्त [ घिरा हुआ Surrounded ]
तत् = वह; 
आस्माकम्  बलम् = हमारा सेन्य बल ;   
भीष्माभिरक्षित् = भीष्मपितामह द्वारा रक्षित; 
पर्याप्तम् = परि [ चारों तरफ Around ]+ आप्त [ घिरा हुआ Surrounded ] 
तु = और; 
इदम् = यह; 
एतेषाम्  बलम् = = इन लोगों की सेना; 
भीमाभिरक्षितम् = भीम द्वारा रक्षित; 
अयनेषु = मोर्चों पर; 
सर्वेषु = सब; 
यथाभागम् = अपनी अपनी जगह; 
अविस्थता: = स्थित रहते हुए; 
भीष्मम् = भीष्म पितामह की; 
एव = ही; 
अभिरक्षन्तु = सब ओर से रक्षा करें; 
भवन्त: = आपलोग;
सर्वें = सबके सब; 
एव = ही; 
हि = नि:सन्देह; 

अपर्याप्त (दूर दूर तक फैल़ा हुआ) है अपनी तरफ का बल जो भीष्म द्वारा रक्षित भी तो है। पर्याप्त (चारों तरफ से आप्त,घिरा हुआ सा ) इनका यह बल भीम द्वारा रक्षित है और सभी मोर्चों पर उचित भूभाग पर अवस्थित हुए आप सभी भीष्म की ही सभी तरफ से रक्षा करें।


इस श्लोक में पर्याप्त और अपर्याप्त शब्द असमंजस पैदा करते हैं। हम पर्याप को पूरा और अपर्याप्त को अधुरा या कम के भावार्थ में उपयोग करते हैं। कोई राजा अपनी 11 ब्रिगेड को अपर्याप्त और प्रतिपक्षी की 7 ब्रिगेड को पर्याप कैसे कहेगा। यहाँ अ अक्षर का उपयोग हुआ है। अ अक्षर हम ना या नहीं के लिए समझते हैं लेकिन ऐसा नहीं हैं।

जैसे की अज्ञान का अर्थ ज्ञान नहीं होना मानते हैं जबकि ज्ञान नहीं होने के लिए अनभिज्ञता का प्रयोग-उपयोग किया जाता है।अज्ञान का अर्थ खोटा-ज्ञान या गलत जानकारी होता है। 
इसी तरह परी + आप्त का अर्थ है एक सीमित स्थान पर घिरे होना और अपर्याप्त का अर्थ इस से उल्टा, यानी घेरे रहना,घेरे रखना,घेरने में सक्षम इत्यादि होगा।

इससे पूर्व दुर्योधन ने पाण्डव सेना को चहुँमुखी भी कहा था। संख्या बल को जीतने के लिए सांख्य का योग किया जाता है। कृष्ण की सलाह पर धृष्टद्युम्न ने 7 अक्षोहिणी, 7 ब्रिगेड सेना को वृताकार खड़ा किया था जिनके मुख चारों तरफ रखे गए।  इस कारण दुर्योधन को ऐसा लगा कि यह सेना जीतने में सुगम है, क्योंकि इसको घेरा जा सकता है। 

लेकिन कृष्ण यह जानते थे कि इस युद्ध में भाग लेने वाले अन्ततः सभी मारे जायेंगे अतः दोनों पक्षों की हार होगी,जीत उसी की मानी जाएगी जो जीवित बचेगा।

अतः सेना को इस तरह खड़ा किया गया कि युद्ध शुरू होते ही सात ब्रिगेड के रथ जिधर मुख था उधर ही दौड़ पड़े तब बीच में खुला मैदान हो गया जो चारों तरफ से सुरक्षा घेरे से घिरा था और जो सेना एक सीमित दायरे में नजर आ रही थी और घेरने में सुगम लग रही थी वह इतने बड़े क्षेत्र में फ़ैल गई कि उसे घेरना सम्भव नहीं हुआ और उस सुरक्षा घेरे में पांचों पाण्डवों को बचाना था।जिनको बचा लिया गया,बाकी सभी मारे गए।

कृष्ण चूँकि अर्जुन के सारथी थे अतः रथ की लगाम उनके हाथ में थी। जब भी अन्य चारों पाण्डवों पर मारक आक्रमण होता तभी बीच में रखे गए खुले मैदान में कृष्ण, अर्जुन का रथ लेकर सुरक्षा हेतु, पहुँच जाते और अंततः पांचों पाण्डवों को बचाने में सफल रहे और जीत उनके नाम दर्ज हुई।

जब भी प्रतिपक्षी योद्धा नियम की दुहाई देता कि एक योद्धा से एक ही युद्ध करेगा तो कृष्ण का उत्तर होता पहले तुम्हारे पक्ष ने नियमो का उलंघन किया था अतः अब ये नियम अमान्य हो गए।

इस तरह जिस चहुँ मुखी व्यूहरचना के लिए दुर्योधन ने व्यंग किया था कि धृष्टद्युम्न की बुद्धिमता देखो कि एक सीमित दायरे में पर्याप्त कर दिया है उसे तो हमारी अपर्यात सेना सुगमता से घेर लेगी अतः जो जिस मोर्चे पर खड़ा है खड़ा रहे और भीष्म अकेले ही इस सेना को जीत लेंगे अतः आप सभी सेनापति भीष्म की ही रक्षा करें।      



सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

विषाद योग व्याख्या; श्लोक 7, 8, 9 व्याख्या:-

अस्माकं   तु   विशिष्टा:  ये   तान  निबोध  द्विजोतम 
अपनी तरफ के भी विशिष्ट जो भी हैं इन्हें भी निर्विध्न समझिये द्विजों में उत्तम आचार्य !
नायका:  मम  सैन्यस्य  संज्ञार्थं  तान  ब्रवीमि  ते  ।।  1/7  ।।
नायक (हीरो ) जो मेरे तरफ की सेना के हैं  उनके संज्ञा नाम बताता हूँ आपको 
भवान  भीष्म: च  कर्ण: च  कृप: च  समितिंजय: 
आप खुद भीष्म और कर्ण और आचार्य कृप जैसे जो अकेले ही इस सीमित सेना पर जय करने वाले  हैं  
अश्वत्थामा  विकर्ण: च सौमदत्ति:  तथा  एव च ।।  1/8  ।।
अश्वस्थामा और विकर्ण और  सोमदत्त के पुत्र भी तथा 
अन्ये च बहव: शुरा: मदर्थे  त्यक्तजीविता:
अन्य बहुत सारे शूर हैं,  मेरे लिए जीवित रहने तक लड़ने वाले 
नाना शस्त्र प्रहरणा: सर्वे  युद्ध  विशारदा:          ।।  1/9  ।।
आनेकानेक प्रकार के शस्त्रों से प्रहार करने में निपूण युद्ध विशारद 


अपनी तरफ के भी विशिष्ट, जो भी हैं, इन्हें भी निर्विध्न समझिये हे द्विजों में उत्तम आचार्य ! नायक (हीरो ) जो मेरे तरफ की सेना के हैं उनके संज्ञा नाम बताता हूँ आपको:- आप खुद, भीष्म और कर्ण और आचार्य कृप जैसे, जो अकेले ही इस समितिंजय: सीमित सेना / पंचायत-राज-समिति पर जय करने वाले हैं। अश्वस्थामा और विकर्ण और सोमदत्त के पुत्र भी तथा अन्य बहुत सारे शूर हैं, मेरे लिए जीवित रहने तक लड़ने वाले, आनेकानेक प्रकार के शस्त्रों से प्रहार करने में निपूण युद्ध विशारद।

व्याख्या:- 


यहाँ आचार्य द्रोण के लिए द्विज शब्द का उपयोग हुआ है। ब्राह्मणों की दो धाराएँ सनातन है। एक अध्यापकों, शिक्षकों की जिन्हें विप्र कहा जाता है जो कुलीन गृहस्त होते हैं अर्थात पिता ही गुरु होता है। दूसरी धारा दीक्षकों-प्रशिक्षकों की होती है। जब सन्तान रूप में पितृ कुल में पैदा होता है और दक्ष व् प्रशिक्षित होने के लिए गुरुकुल में यज्ञ-उपवीत [यज्ञोपवीत] धारण करके शिष्य रूप में दुबारा पैदा होता है, अतः वह दो कुल परम्पराओं में जन्म लेने के कारण द्विज कहलाता है।  
पाण्डवों के पास 7 ब्रिगेड सेना थी,जबकि कौरवों के पास 11 ब्रिगेड थी फिर भी दुर्योधन ने कुछ ही नाम गिनाए। बाकी तो जैसे उसने अपनी प्रतिष्ठा और पाण्डवों को भयभीत करने के लिए इकठ्ठी की थी। इनमे भी भीष्म सहित सभी राष्ट्रिय संविधान में बंधे,वेतनभोगी,अथवा सामरिक समझोते के अंतर्गत आये लोग थे।
जिस तरह से राजनीतिज्ञ अनेकानेक तरह के नियम,कानून,कायदे,बजट-प्रावधान इत्यादि शस्त्र चला कर जनसाधारण का धन अपने वेतन और भत्तों में खर्च करते हैं और सीधेसाधे साधूजन को एक जटिल प्रशासनिक व्यवस्था में उलझाये रख कर दीन-हीन-कृपण बनाये रखते हैं वैसा ही वातावरण उस समय  अश्वस्थामा और विकर्ण और सोमदत्त के पुत्र तथा अन्य बहुत सारे शूर-वीरों ने जन समीतियों के विरुद्ध बना रखा था। 

विषाद योग व्याख्या; श्लोक 2 से 6 तक व्याख्या:-

 संजय उवाच  

आचार्यम  उपसंगम्य   राजा   वचनं   अब्रवीत ।। 1/2 ।।
आचार्य ( द्रोण ) के बाजू में खड़े राजा (दुर्योधन ) ने (अब्रवीत)  लापरवाही से कहा

दृष्ट्रवा  तु  पाण्डवानीकम  व्युढ़म  दुर्योधनः  तदा 

देख कर पांडवों की तरफ की सेना की व्यूह रचना को दुर्योधन ने तब 
व्युढाम  द्रुपदपुत्रेण  तव   शिष्येण   धीमता         ।। 1/3 ।।
सैन्य व्युहरचना को, द्रुपद के पुत्र आपके शिष्य की बुद्धिमता
अत्र   शूरा:  महेष्वासा:  भीमार्जुन  समा:  युधि 
यहाँ शूरवीर महा धनुषधारी भीम और अर्जुन समान योद्धा
युयुधान:   विराट:   च  द्रुपद:  च  महारथ:           ।। 1/4  ।।
युयुधान और विराट और द्रुपद जैसे महारथी
धृष्टकेतु:   चेकितान:  काशिराज:  च  वीर्यवान 
दृष्टकेतु चेकितान  और काशिराज जैसे वीर्यवान वीर 
पुरूजित   कुन्ति  भोज:  च   शैव्य:  च नर पुंगव :   ।।  1/5  ।।
पुरुजीत और कुन्तिभोज और शैव्य जैसे नरपुंगव(बहुत से लोगों से अकेले पंगा लेने वाले)
युधामन्यु:  च   विक्रांत:  उत्तमौजा:  च  वीर्यवान 
और युद्धामंयु विक्रांत  उत्तमौजा जैसे वीर्यवान 
सौभद्र:   द्रौपदेया: च  सर्वे    एव    महारथा:        ।।  1/6  ।।
सुभद्रा पुत्र और द्रोपदी के सभी महारथी पुत्र 



आचार्य ( द्रोण ) के बाजू में खड़े राजा  दुर्योधन  ने  पांडवों की तरफ की सेना की व्यूह रचना को देख कर तब (अब्रवीत)  लापरवाही से बताया :- देखिये  आचार्य ! इन पांडू पुत्रों की महत्त्व पूर्ण चहुँमुखी सैन्य   व्युहरचना को, द्रुपद के पुत्र आपके शिष्य की बुद्धिमता ! यहाँ शूरवीर महाधनुषधारी भीम और अर्जुन समान योद्धा। युयुधान और विराट और द्रुपद जैसे महारथी। दृष्टकेतु चेकितान और काशिराज जैसे वीर्यवान वीर। पुरुजीत और कुन्तिभोज और शैव्य जैसे नरपुंगव।(बहुत से लोगों से अकेले पंगा लेने वाले)। और युद्धामंयु, विक्रांत,  उत्तमौजा जैसे वीर्यवान [बलवान,वीर]। सुभद्रा पुत्र और द्रोपदी के सभी महारथी पुत्र।


व्याख्या:- 
दुर्योधन ने ये जितने भी नाम गिनाये हैं,ये सभी पाण्डवों के परिजन एवं  वे लोग हैं जो गणराज्यों के समर्थक हैं। इनकी रिश्तेदारी जाननी हो तो या तो महाभारत ग्रन्थ पढ़ें या डा . सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा व्याख्या की गयी गीता या अन्यत्र कहीं से पढ़लें।मैं इस तरह के विस्तार, जिसमे पुस्तक की नक़ल अथवा रटने वाली बात हो, में नहीं जाना चाहता। समझने की बात मैंने लिखदी है। 

प्रथम अध्याय विषाद योग ;श्लोक संख्या 1; व्याख्या Interpretation !

धृत राष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: । मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ।।1:1।।

 धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे  समवेताः युयुत्सवः मामकाः पाण्डवा: च  एव  किम अकुर्वत संजय ।। 1;1 ।।

धृतराष्ट्र बोले-
हे संजय !  धर्म क्षेत्रे = धर्म क्षेत्र / धर्म भूमि/ धर्म के विषय  और ; कुरु क्षेत्रे = कर्म क्षेत्र / कर्म भूमि / कर्म के विषय में ;समवेताः = एकत्रित ; युयुत्सवः = युद्ध की इच्छा वाले,युद्ध करने को उत्सुक ; मामकाः =मेरे और पाण्डवा:= पाण्डु के पुत्रों ने; किम अकुर्वत= क्या किया ? ।।1:1।।

धर्म क्षेत्र और कर्म क्षेत्र में  एक साथ इकठ्ठे हुए युद्ध को उत्सुक  मेरे और पांडव के भी, पुत्रो ने,  [ धर्म एवं कर्म विषयान्तर्गत ] अकुर्वत न करने योग्य,क्या कर्म किया ( कूबद की )  

यह गीता के प्रथम अध्याय का प्रथम श्लोक है। जो धृतराष्ट्र के मुख से निकला पहला और अन्तिम यानी एक मात्र उवाच Quotations-dialogue है।

धृतराष्ट्र = धृत + राष्ट्र 

धृत = Cocky गुस्ताख भी होता है। धृत का हिंदी में अधिकृत शब्द बना है। धृति-बल,धारणा-शक्ति [concept]  इत्यादि ये सभी शब्द प्राकृत भाषा के धी से बने हैं। जिस का अर्थ होता है बँधी हुई बुद्धि। धृति का एक अर्थ कार्यकाल भी होता है।
राष्ट्र = मानव द्वारा अधिकृत या निर्मित या मान्यता प्राप्त भौगोलिक सीमा।
वर्तमान के शब्द कोष से व्याख्या करें तो राष्ट्रपति या राष्ट्राध्यक्ष कह सकते हैं।
क्षेत्र = भौगोलिक क्षेत्र, कार्याधिकार क्षेत्र और अध्ययन क्षेत्र ये तीन प्रकार के क्षेत्र के विषय होते हैं।
धर्म क्षेत्र  कुरु क्षेत्र
  1. ऐतिहासिक एवं अधि-भौतिक व्याख्या करें तो इसका अर्थ होता है वह क्षेत्र जो वर्षावन के रूप में धर्म क्षेत्र कहलाता है और गृहस्थ आश्रम वाला रहवासी क्षेत्र कर्म क्षेत्र कहा गया है। इन दोनों की सीमाओं के बीच वह क्षेत्र जो गौचर भूमि होती उस भूमि पर युद्ध हो रहा था।अतः वह धर्म और कर्म दोनों का क्षेत्र है।
  2. अधि-दैविक व्याख्या है कि जिस क्षेत्र [विषय] में धर्म + कर्म यानी उदेश्य +उपलब्धि, object + subject, mission + profession क्षेत्र को लेकर जो झगडा है उससे सम्बंधित युद्ध हो रहा था । आप यह जो कहावत कहते हैं "नेकी कर कुए में डाल"  यह संस्कृत की कहावत "कुरू कुरू स्वाहाः"  का ही शब्दानुवाद है, अर्थात कुरु शब्द कर्म का ही पर्यायवाची शब्द है। .... आप जो भी धार्मिक यानी मिशनरी कर्म करते हैं उस परियोजना मे जब तक व्यावसायिकता नहीं आएगी वह आत्म-निर्भर नहीं रहेगी और अपने लिए धन जुटाने के लिए अन्य पर निर्भर रहेगी और अन्ततः वह अपने उदेश्य तक नहीं पहुँच पाएगी अपवाद स्वरूप पहुँच भी गई तब भी स्थायित्व नहीं रहेगा। ......इसी तरह जब आप पूर्णतः व्यावसायिक होकर कामनाओं को पूरा करने हेतु काम करते हैं और उस काम के मिशन/धर्मं की अवहेलना कर देते हैं तब आप उस क्षेत्र में स्थायित्व प्राप्त नहीं कर सकते। ... यहाँ एक पक्ष स्वतंत्रता की लडाई का मिशन/उदेश्य लेकर चल रहा है जिसमे सभी सैनिक अपने अधिकारों के लिए कर्तव्य समझ कर लड़ रहे हैं,तो दुसरे पक्ष के साथ सिर्फ वे व्यावसायिक सैनिक हैं जिनका धन्धा / प्रोफेशन ही लड़ना होता है वे अपने प्रोफेशनल क्षेत्र में उपलब्द्धि को लेकर जीवन-संग्राम कर रहे होते हैं। ... यहाँ एक पक्ष के समर्थन में प्रकृति के प्रतिनिधि यानी विष्णु के अवतार हैं जो जीवन के मिशनरी पक्ष के प्रतिनिधि को समझा रहे हैं कि तूं इसे अपना धन्धा मान कर चल जब तक धन्धा नहीं करेगा तब तक जीवारी नहीं होगी ।
  3. अधि-आत्मिक [आध्यात्मिक] व्याख्या है कि एक पक्ष का स्वभाव,मनोविज्ञान,मानसिकता, अवधारणा यह है कि हमें चाहे पाँच गाँव ही दे देवें लेकिन हम राष्ट्रपति-शासन, धृतराष्ट्र-शासन, राज्य प्रशासन प्रणाली के अधीन नहीं रहेंगे, हम पंचायती राज पद्धति का स्वतन्त्र स्वाधीन क्षेत्र [धर्म क्षेत्र ] चाहते हैं, जहाँ प्राकृतिक नियमों पर चलने वाली शासन प्रणाली हो। जबकि दूसरा पक्ष मानव के स्व-अनुष्ठित धर्म यानी मानव निर्मित नियमो पर बने संविधान को सभी राष्ट्रवासियों पर लागू करना चाहता है। जिसमे धन का दुरूपयोग और दुःखदायी शासन प्रणाली है। जहां उदेश्य हीन व्यर्थ के कामों के प्रति उकसाते हैं और राष्ट्रधर्म के नाम पर एक ही प्रकार की जीवन-शैली सभी पर थोपना चाहते हैं।     
समवेता संस्कृत का शब्द है जिसका हिन्दी में एक साथ इकठ्ठे होना होता है। जब हिन्दी का विकास हुआ तो वेतन शब्द यहीं से निकला जिसका अर्थ होता है एक सप्ताह,महीने अथवा वर्ष का एक साथ वेतन देना। यहाँ पर भीष्म,द्रोण,कृप इत्यादि सभी वेतन भोगी हैं अतः वे मजबूरन धर्मक्षेत्र के विरुद्ध कर्म कर रहें है।

युयुत्सवः = युयुः शब्द घोड़े के खड़े रहने के आचरण के लिए भी काम में लिया जाता है,घोड़ा नींद भी खड़े खड़े ही लेता है। युद्ध क्षेत्र में मरते दम तक घुटने नहीं टेकता, इसी तरह जीवन संग्राम में भी अपने पैरों पर खड़े रहा जाता है। यहाँ सभी लोग इस युद्ध में उत्सव मनाने जैसे उत्साह से इस उत्सुकता से लड़ रहें हैं कि देखें परिणाम क्या निकलता है!

यहाँ एक राष्ट्रपति है जो राष्ट्र की सत्ता अपने पुत्रों के हाथ में सोंपना चाहता है। जबकि वह उस परम्परा से है जो दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र भरत ने शुरू की थी कि गणराज्य में राज्य उत्तराधिकारी जनमत से चुना जाये, न कि अपनी सन्तान को उत्तराधिकारी बना कर राज्य पर थोपा जाये। लेकिन राष्ट्रपति की धृति राष्ट्र में पंचायती राज व्यवस्था के लिए पाँच गावों को भी स्वतंत्र,स्वाधीन और आत्म निर्भर स्वीकार नहीं कर पा रही है। सत्ता का उत्तराधिकारी भी अपनी सन्तान को बनाना चाहता है। अतः वह अँधा राष्ट्रपति,राष्ट्राध्यक्ष धृतराष्ट्र अपने सचिव सन्जय से,जो उसका वाहन चालक,ड्राईवर,सारथी भी है,से पूछ रहा है कि वहाँ क्या हो रहा है।  


इस घटना के पाँच हजार वर्ष बाद आज हम पुनः उसी जटिल स्थिति में आगये हैं। जो धर्म और कर्म को उभयपक्षी/अद्वेत नहीं मानने से पैदा हो गयी है। एक तरफ कहा जाता है धर्म को राजनीति से अलग रखो जबकि दूसरी तरफ राजनीति को भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों का कर्म क्षेत्र माना जाता है। 


राष्ट्र के कर्ता-धर्ता एक तरफ तो राष्ट्र और राष्ट्रीय संविधान का राग अलापते हैं, तो दूसरी तरफ गणराज्य भारत के गण [ ग्रामीण ]  दरीद्रता और आभाव की सीमारेखा से भी नीचे गिर गए हैं। और संवैधानिक न्यायप्रणाली की स्थिति भी ऐसी है, जिसमे न्यायाधीश भी भीष्म, द्रोण, कृप की तरह वेतन भोगी होने के कारण दुर्योधनो और दुशासनों के खेमे में खड़े रहने को मजबूर हैं। 

एक तरफ धर्म के नाम पर वैमनष्य  फैला बढ़ा कर मानवता को ही नष्ट किया जा रहा है, तो दूसरी तरफ 5 % दुष्ट प्रवृति के लोगों के अधर्म और अन्याय के आचरण को रेखांकित करके, सामाजिक परम्पराओं को समाज का नासूर, कलंक इत्यादि कह कर लोग मसीहा बन रहे है। 


एक तरफ मानव-धर्म के क्षेत्र में जितने तरह के अधर्म व् अन्याय होते हैं उन को बढ़ाने वाली व्यवस्था प्रणाली को लागू किया जाता है तो दूसरी तरफ विकास के नाम पर व्यर्थ के कर्म-क्षेत्र का विस्तार हो रहा है। 


सभी परिस्थितियों को देखें तो आज हमें चाहिए कि हम सभी एकमत होकर कर एक ऐसी व्यवस्था प्रणाली को प्रतिष्ठित करें जो धर्म व् कर्म क्षेत्र में आ चुकी विषमताओं को सम में आप्त कर सके, धर्म क्षेत्र व् कर्म क्षेत्र को सम करके अद्वेत कर दे। 


ॐ तत सत   

  


शनिवार, 1 सितंबर 2012

प्रथम अध्याय: अर्जुन विषाद योग ( भूमिका ) Chep.I.Arjun's dipreshan activity ( Preface)

धृत राष्ट्र उवाच

 धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे  समवेताः युयुत्सवः 

धर्म क्षेत्र और कर्म क्षेत्र में एक साथ इकठ्ठे हुए युद्ध को उत्सुक 

मामकाः पाण्डवा: च  एव  किम अकुर्वत संजय ।। 1/1 ।।

 मेरे और पांडव के भी, पुत्रो ने,  अकुर्वत न करने योग्य,क्या कर्म (कूबद ) की  है। 

 संजय उवाच 

दृष्ट्रवा  तु  पाण्डवानीकम  व्युढ़म  दुर्योधनः  तदा 

देख कर पांडवों की तरफ की सेना की व्यूह रचना को दुर्योधन ने तब 

आचार्यम  उपसंगम्य   राजा   वचनं   अब्रवीत             ।। 1/2 ।।

आचार्य ( द्रोण ) के बाजू में खड़े राजा (दुर्योधन ) ने (अब्रवीत)  लापरवाही से कहा

पश्य   एताम   पांडुपुत्राणाम  आचार्य   महतीम चमूम 

 देखिये  आचार्य ! इस पांडू पुत्रों की महत्त्व पूर्ण चहुँमुखी 

व्युढाम  द्रुपदपुत्रेण  तव   शिष्येण   धीमता         ।। 1/3 ।।

सैन्य   व्युहरचना को, द्रुपद के पुत्र आपके शिष्य की बुद्धिमता

अत्र   शूरा:  महेष्वासा:  भीमार्जुन  समा:  युधि 

यहाँ शूरवीर महा धनुषधारी भीम और अर्जुन समान योद्धा

युयुधान:   विराट:   च  द्रुपद:  च  महारथ:           ।। 1/4  ।।

युयुधान और विराट और द्रुपद जैसे महारथी

धृष्टकेतु:   चेकितान:  काशिराज:  च  वीर्यवान 

दृष्टकेतु चेकितान  और काशिराज जैसे वीर्यवान वीर 

पुरूजित   कुन्ति  भोज:  च   शैव्य:  च नर पुंगव :   ।।  1/5  ।।

पुरुजीत और कुन्तिभोज और शैव्य जैसे नरपुंगव(बहुत से लोगों से अकेले पंगा लेने वाले)

 युधामन्यु:  च   विक्रांत:  उत्तमौजा:  च  वीर्यवान 

और युद्धामंयु विक्रांत  उत्तमौजा जैसे वीर्यवान 

सौभद्र:   द्रौपदेया: च  सर्वे    एव    महारथा:        ।।  1/6  ।।

सुभद्रा पुत्र और द्रोपदी के सभी महारथी पुत्र 

अस्माकं   तु   विशिष्टा:  ये   तान  निबोध  द्विजोतम 

अपनी तरफ के भी विशिष्ट जो भी हैं इन्हें भी निर्विध्न समझिये द्विजों में उत्तम आचार्य !

नायका:  मम  सैन्यस्य  संज्ञार्थं  तान  ब्रवीमि  ते  ।।  1/7  ।।

नायक (हीरो ) जो मेरे तरफ की सेना के हैं  उनके संज्ञा नाम बताता हूँ आपको 

भवान  भीष्म: च  कर्ण: च  कृप: च  समितिंजय: 

आप खुद भीष्म और कर्ण और आचार्य कृप जैसे जो अकेले ही इस सीमित सेना पर जय करने वाले  हैं  

अश्वत्थामा  विकर्ण: च सौमदत्ति:  तथा  एव च ।।  1/8  ।।

अश्वस्थामा और विकर्ण और  सोमदत्त के पुत्र भी तथा 

अन्ये च बहव: शुरा: मदर्थे  त्यक्तजीविता:

अन्य बहुत सारे शूर हैं,  मेरे लिए जीवित रहने तक लड़ने वाले 

नाना शस्त्र प्रहरणा: सर्वे  युद्ध  विशारदा:          ।।  1/9  ।।

आनेकानेक प्रकार के शस्त्रों से प्रहार करने में निपूण युद्ध विशारद 

अपर्याप्तं तत  अस्माकं  बलम  भीष्माभिरक्षितम

अपर्याप्त(दूर दूर तक फैल़ा हुआ) है अपनी तरफ का बल जो भीष्म द्वारा रक्षित भी तो है।

पर्याप्तं   तु   इदं  एतेषां  बलम भीमाभिरक्षितं ।।   1/10  ।।

पर्याप्त (चारों तरफ से आप्त,घिरा हुआ सा )इनका यह बल भीम द्वारा रक्षित है 

अयनेषु  च    सर्वेषु   यथाभागम अवस्थिता:

और सभी मोर्चों पर उचित भूभाग पर अवस्थित हुए  

भीष्मं  एव अभिरक्षन्तु भवंत: सर्वे एव हि   ।।  1/11  ।।

आप भीष्म द्वारा सभी रक्षित हैं।

तस्य  संजनयन  हर्षम  कुरु वृद्ध:  पितामह:

तब उसके हर्ष उत्पन्न करने के लिए कुरु वृद्ध पितामह ने 

सिंहनादं  विनद्य  उच्चै: शंखं  दध्मौ  प्रतापवान ।।  1/12  ।।

सिंह की दहाड़ के समान नाद पैदा करते हुए उच्चध्वनी विस्तारक शंख बजाया प्रतापी ने 

तत:  शंखा:  च  भेर्य: च   पणवानक गोमुखा: 

तब फिर शंख, नगारे,तुरई  ढ़ोल ,मृदंग 

सहसा एव अभ्यहन्यन्त  स: शब्द: तुमुल: अभवत  ।।  1/13  ।।

भी सहसा एक साथ तुमुल ध्वनी (मिलीजुली ध्वनी ) कर के बज उठे .

ततः श्वेतै:  हयैः युक्ते  महति  स्यन्दने  स्थितौ  

तभी वहां श्वेत घोड़ों महत रथ में स्थित  हुए 

माधव: पाण्डवः  च  एव  दिव्यौ  शन्खौ  प्रदध्मतु:   ।।  1/14  ।।

माधव और पांडव ने भी दिव्य शंख बजाये 

पान्चजन्यम  हृषीकेशः   देवदत्तं  धनञ्जय:

पान्चजन्य को हृषिकेश ने देवदत्त को धनञ्जय ने 

पौण्ड्रम  दध्मौ  महाशंखं  भीम कर्मा  वृकोदर: ।।   1/15  ।।

पौंड्र  महाशंख बजाय़ा भारी भरकम काम करने वाले वृकोदर ने 

अनंत विजयं  राजा कुंती पुत्र युधिष्ठिर:

अनंत विजय बजाया  कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने 

नकुल: सहदेवः च सुघोष मणिपुष्पकौ         ।।  1/16  ।।

नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक 

काश्यः च परमेष्वासः शिखंडी च महारथः 

परम धनुषधारी काशिराज और महारथी शिखंडी 

धृष्टद्युम्न  विराट:   च  सात्यकि: च  अपराजितः ।।  1/17  ।।

धृष्टद्युम्न, विराट, और सात्यकि जैसे अपराजित  रहने वाले

द्रुपदः द्रौपदेया: च  सर्वश: पृथिवीपते

 द्रुपद और  द्रोपदी के सभी पृथ्वीपति पुत्रों ने 

सौभद्र: च   महाबाहू:शंखान दध्मु: पृथक पृथक  ।।  1/18  ।।

और माहाबाहू सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु ने अलग अलग शंख बजाये।

सः घोषः  धार्त राष्ट्राणाम   हृदयानि व्यदारयत 

उस  ध्वनी घोष ने धृतराष्ट्र के  पक्ष के ह्रदय विदीर्ण कर दिए  

नभः  च पृथिवीम च  एव    तुमुलः व्यनुनादयन .।।  1/19  ।।

और नभ और पृथ्वी के बीच तुमुल नाद अनुनाद पैदा कर दिया 

अथ  व्यवस्थितान  दृष्टवा  धार्तराष्ट्रान  कपिध्वज:

उस समय व्यवस्थित देख कर धार्त राष्ट्रों को, कपिध्वज वाले रथपर सवार 

प्रवृत्ते   शस्त्रसम्पाते  धनुः  उद्यम्य  पाण्डवः          ।।1/20  ।।

पांडव,  धनुष नामक  शस्त्र को संभाल कर, उद्यम को प्रवृत हुआ 

हृषीकेशम  तदा  वाक्यं  इदं  आह   महीपते 

 तब फिर हृषिकेश को महिपते (अर्जुन )ने यह वाक्य कहा 

अर्जुन-उवाच

सेनयो: उभयो:  मध्ये  रथं  स्थापय  मे अच्युत      ।।  1/21  ।।

अच्युत  !  उभय पक्षी सेना के मध्य मेरे रथ को खड़ा करो ।

यावत्  एतान  निरीक्षे  अहम्  योद्धुकामान  अवस्थितान  

जब तक इन युद्ध की कामना से इकठ्ठे हुए योद्धाओं का निरिक्षण करूँ रथ खड़ा रखना 

कैः  मया  सह  योद्धव्यम  अस्मिन  रणसमुद्यमे    ।।  1/22   ।।

किस किस के साथ मुझे युद्ध करना है, कोन कोन रण में सम उद्द्यत हैं 

योत्स्यमानान  अवक्षे अहम्  ये  एते  अत्र समागताः 

 युद्ध को ही अधिकार मानने वालों को आमने सामने देखुं जो जो यहाँ एक साथ हैं

धार्तराष्ट्रस्य  दुर्बुद्धे: युद्धे  प्रियचिकीर्षवः                ।।  1/23  ।। 

राष्ट्र के प्रति धृति वाले इन दुर्बुद्धि वालों की  युद्ध ही   प्रिय अभिलाषा  हैं।

 संजय उवाच  

एवम  उक्तः    हृषीकेश:  गुडाकेशेन  भारत  

इस प्रकार से उक्त कहते हुए हृषिकेश ने  निद्रा को जीतने वाले (अनिंद्रा रोगी )गुड़ाकेश भारत  को  कहा 

सेनयो:  उभयो: मध्ये  स्थापयित्वा   रथोत्तमम    ।।  1/24 ।।

दोनों उभयपक्षी सेना के मध्य  उत्तमरथ को  स्थापित करके 

भीष्म  द्रोण  प्रमुखतः   सर्वेषाम  च   महीक्षिताम  

प्रमुखत: भीष्म द्रोण  और सभी प्रमुख महाराजों के सामने देखते हुए  

उवाच  पार्थ  पश्य  एतान  समवेतान  कुरून   इति  ।।   1/25  ।।

पार्थ से  कहा ; देख इन एक साथ जुटे हुए कोरवों को 

तत्र  अपश्यत  स्थितान  पार्थः  पित्रिन   अथ  पितामहान  

तब पार्थ ने वहां उपस्थितों को देखा कि यहाँ तो पितामह सहित पूरा पितृकुल  है  

आचार्यान  मातुलान  भ्रात्रिन  पुत्रान पौत्रान सखीन तथा ।। 1/26 ।।

आचार्य मातृकुल  भाई पुत्र पोत्र सखा सम्बन्धी तथा 

श्वशुरान  सुहृदः  च  एव  सेनियो: उभयो:  अपि   

श्वसुर और सुहृदयी भी दोनों पक्षों में है।

तान  समीक्ष्य  स: कौन्तेयः  सर्वान  बंधून अवस्थितान।।1/27 ।।

उन उपस्थित सभी बंधू बांधवों की  समीक्षा करता  हुआ   कौन्तेय 

कृपया  परया   आविष्ट:  विषीदन  इदम   अब्रवीत   

करुणा से पूरी तरह आवेशित  विष का घूँट  पिते  हुआ सा बोला 

  अर्जुन-उवाच  

दृष्ट्रवा  इमम स्वजनं  कृष्ण  युयुत्सुम  सम उपस्थितम  ।। 1/28 ।।

देख कर इन तमाम स्वजनों को कृष्ण ! युद्ध को उत्सुक सम उपस्थितों को 

सीदन्ति  मम   गात्राणि   मुखंम  च  परिशुष्यति  

दाँत कटकटा  रहे हैं अंग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा हैं। 

वेपथुः   च   शरीरे   मे   रोमहर्ष   च    जायते              ।।   1/29   ।।

और मेरा शरीर कांप रहा है और रोंगटे खड़े हो गए हैं।

गाण्डीवं   संत्रसते   हस्तात  त्वक  च  एव  परिदह्यते

गांडीव हाथ से फिसल रहा है और त्वचा भी जल रही है।

न  च  शंक्रोमि  अवस्थातुम  भ्रमति   इव  च मे  मनः  ।।  1/30  ।।

और न तो इस अवस्था में खड़ा रहने में समर्थ हूँ और मेरा मन भी भ्रमित हो रहा है .

निमित्तानि  च  पश्यामि   विपरीतानि   केशव  

(युद्ध का ) निमित भी विपरीत देख रहा हूँ केशव !

न   च  श्रेयः  अनुपश्यामि  हत्वा  स्वजनम  आहवे   ।।  1/31   ।।

और न यह श्रेयकर  देख रहा हूँ स्वजनों की ह्त्या का आह्वान 

न  कान्क्षे   विजयं  कृष्ण  न  च   राज्येम  सुखानि  च  

नहीं आकांक्षा विजय की कृष्ण !और  न  ही राज्य के सुख की 

किम  न:  राज्येन  गोविन्द  किम  भोगै: जीवितेन  वा  ।। 1/32  ।।

कैसा हमें राज्य से  गोविद ! कैसा जीवन के भोगों से  प्रयोजन 

येषां  अर्थे कांक्षितम  नः  राज्यं  भोगाः  सुखानि  च 

जिन के हितार्थ आकांक्षा करते हैं हम राज्य के भोगों की और सुखकी  

ते  इमे  अवस्थिताः  युद्धे  प्राणान  त्यक्त्वा  धनानि  च ।। 1/33 ।।

वे सब तो अवस्थित हैं युद्ध में प्राण और धन त्याग कर  और 

आचार्याः पितरः पुत्राः तथा  एव  च  पितामहा: 

आचार्य और चाचा ताऊ पितर पुत्र तथा पितामह भी 

मातुलाः श्वशुरा:  पौत्राः  श्यालाः सम्बंधिन:  तथा    ।।  1/34  ।।

मामा  श्वसुर पोते साले सम्बन्धी तथा 

एतान  न हन्तुम  इच्छामि  घ्नतः  अपि मधुसूदन

इन सब को कभी नहीं  मारने की  इछा!   मारना भले ही   मधुसुदन !

अपि  त्रैलोक्यराज्यस्य  हेतो:  किम नु महीकृते       ।।   1/35   ।।

त्रिलोकी  के  राज्य के  हेतु भी हो तो फिर उपजाऊ भूमि के लिए तो क्या ?

निहत्य  धार्त राष्ट्रां  नः  का प्रीति:  स्यात  जनार्दन 

मारना  धृतराष्ट्र के पुत्रों को हमें कैसे  प्रिय लगेगा जनार्दन !

पापं  एव  आश्रयेत   अस्मां हत्वा एतां  आततायिनः     ।। 1/36   ।।

पाप का ही आश्रय है हमारे लिए इन आततायियों की ह्त्या 

तस्मात्  न  अर्हा:  वयं  हन्तुम   धार्तराष्ट्रां स्वबान्धवान 

इस  तरह  नहीं योग्य  हम मारने के  लिए धृतराष्ट्र के पुत्रो व् बंधू बांधवों को  

स्वजनं  ही कथं हत्वा   सुखिनः स्याम  माधव     ।। 1/37  ।।

क्योंकि कहो स्वजनों की कैसे ह्त्या करके सुखी होंगे  माधव !

यद्यपि   एते  न  पश्यन्ति लोभ अपहत   चेतसः 

यद्यपि ये लोग नहीं देख प़ा रहे लोभ द्वारा आहत हुई चेतना  के कारण 

कुलक्षय कृतं  दोषम  मित्र द्रोहे च पातकं     ।।  1/38  ।।

कुल का क्षय करने वाले दोष को और मित्र द्रोह के पाप को 

कथं  न ज्ञेयं  अस्माभि:   प़ापात  अस्मात  निवर्तितुम 

कहो क्यों नहीं जानते हम लोग इस पाप से निवर्त होने का मार्ग 

कुलक्षय  कृतं   दोषम  प्रपश्यद्भी: जनार्दन    ।।  1/39 ।।

कुल के क्षय के दोष पूर्ण कार्य को देख जान कर भी जनार्दन !

कुलक्षये  प्रणश्यन्ति   कुलधर्मा:  सनातनाः 

कुल के क्षय से नष्ट हो जाते हैं सनातन कुलधर्म

धर्मे  नष्टे  कुलं  कृत्स्नंम  अधर्म:  अभिभवती उत   ।।  1/40   ।।

कुल के धर्म नष्ट हो जाने पर सारे  कुल में अधर्म फ़ैल जाएगा 

अधर्म  अभिभवात  कृष्ण  प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः
अधर्म के बढ जाने से कृष्ण !प्रदूषित हो जाती है कुल की स्त्रियाँ  

स्त्रीषु   दुष्टासु  वार्ष्णेय  जायते  वर्णसंकर:         ।।   1/41   ।।

 स्त्रियाँ जब दुष्ट हो जाती है तो जन्मते वर्ण संकर 

संकर:  नरकाय  एव   कुलन्घानाम  कुलस्य च 

वर्ण संकर नरक में ले जाते हैं,  कुलघाती, कुल को ही 

पतन्ति   पितर:  हि  एषां  लुप्त पिण्डोदक क्रिया:  ।।   1/42   ।।

पतन हो जाता है पितरों का क्योंकि ऐसे में पिण्ड दान क्रिया लुप्त हो जाती है।

दोषैः  एतै:   कुलघ्नानाम    वर्णसंकरकारकै:

इन   कुलघातियों के वर्ण संकर कारक दोषों से 

उत्साद्यन्ते   जातिधर्मा:  कुलधर्मा:  च शाश्वता:     ।।   1/43   ।।

उत्सर्जित  हो जाते है जाति धर्म और शास्वत कुल धर्म 

उत्संन्न कुलधर्माणाम  मनुष्याणाम   जनार्दन 

उठ जाते हैं कुलधर्म मानुष्यों  के जनार्दन 

नरके अनियतम  वासः  भवति  इति  अनुशुश्रुम   ।।  1/44   ।।

तो नरक में नियत के विपरीत वास करते हैं ऐसा सुनते आये हैं 

अहो   बत महत पापम   कर्तुम  व्यवसिता: वयं 

अहो बहुत महत पाप करने वाला व्यवसाय हम 

यत राज्य सुख लोभेन  हन्तुम  स्वजनं  उद्यताः    ।।   1/45 ।।

जो कि राज्य के  सुख के लोभ में स्वजनों को मारने को उद्यत हो गए  

यदि माम  अप्रतिकारम   अशस्त्रं   शस्त्रपाणयः

यदि मुझ शस्त्रहीन अप्रतिकारी को शस्त्र धारण किये  हुए

धार्तराष्ट्रा:  रणे  हन्तु:  तत  मे  क्षेमतरम  भवेत्   ।।    1/46  ।।

धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार दें तब भी मेंरे लिए  कुशल क्षेम होगा 

संजय उवाच

एवं   उक्त्वा   अर्जुन:  संख्ये रथोपस्थे   उपाविशत 

इस प्रकार अर्जुन ने सैद्धान्तिक धारणा बता कर रथ के पीछे के भाग पर बैठ गया 

विसृज्य सशरम   चापं शोक संविग्र मानस:   ।।  1/47   ।।    
उतार कर बाण सहित धनुष को  शोक से संवेदित मानसिकता से  

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे$र्जुनविषादयोगो नाम प्रथमो$ध्यायः 

 ॐ आकार ही तत  अपरिमेय विशाल क्षेत्र में फैले हुए तत्व का वह सत है जो ब्रह्म को बांधता है।इति  बस इतना सा सत्य है।

        ॐ आकार को लेकर सबसे अधिक प्रकार की  भ्रांतियां फैली हुई है।एक इस सच्चाई को प्रति क्षण ध्यान में रखें कि इस अपने आपके शरीर और देह में ही वह सभी कुछ है जिसका वर्णन आप वेद-उपनिषदों शास्त्रों में पढ़ते सुनते आये हैं।ॐ आकार मनुष्य के देह में स्थित शरीर की आकृति है . जिस तरह काम का श्री गणेश करते हैं तो बुद्धि के देवता गणेश की पूजा करते हैं .बिस्मिल्लाह करते हैं .उसी तरह जब कार्य संपन्न हो जाता है तो उसे ॐ तत सत कह कर समाप्त किया जाये तो वह मानव मात्र के लिए कल्याणकारी हो जाता है। 

 श्री मत यह वह मत है जो श्री ( सम्पन्नता समृधि )और श्रेय (प्रिय एवं उचित फल ) देता है क्योंकि यह भगवत भगवान  द्वारा निर्मित ( प्रकृति प्रदत ) इस जगत की  सर्वश्रेष्ट रचना (मनुष्य योनी की देह ) के बारे में अशेशेण कहा गया यह मत जो है वह   गीता  गीत की तरह ग़ाया जाता है।उपनिषद् सु यह भी  सभी अन्य उपनिषदों की तरह ही गुरु-शिष्य की व्यक्तिगत वार्ता के रूप में एक आख्यान है । ब्रह्म विद्या  ब्रह्मविद्या ( साईको टेक्नोलोजी ) का  योग उपयोग-प्रयोग-व्यवहार में लाने का   शास्त्र सेन्स और साईंस की  उभय पक्षी जानकारी है। श्री कृष्ण अर्जुन संवाद जो श्री कृष्ण अर्जुन के बीच संवाद /डाईलोग के रूप में हैं अर्जुन विषाद योग नाम प्रथम अध्याय   अर्जुन विषाद योग नाम से यह प्रथम अध्याय है .