धृत राष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: । मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ।।1:1।।
धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे समवेताः युयुत्सवः मामकाः पाण्डवा: च एव किम अकुर्वत संजय ।। 1;1 ।।
धृतराष्ट्र बोले-
हे संजय ! धर्म क्षेत्रे = धर्म क्षेत्र / धर्म भूमि/ धर्म के विषय और ; कुरु क्षेत्रे = कर्म क्षेत्र / कर्म भूमि / कर्म के विषय में ;समवेताः = एकत्रित ; युयुत्सवः = युद्ध की इच्छा वाले,युद्ध करने को उत्सुक ; मामकाः =मेरे और पाण्डवा:= पाण्डु के पुत्रों ने; किम अकुर्वत= क्या किया ? ।।1:1।।
धर्म क्षेत्र और कर्म क्षेत्र में एक साथ इकठ्ठे हुए युद्ध को उत्सुक मेरे और पांडव के भी, पुत्रो ने, [ धर्म एवं कर्म विषयान्तर्गत ] अकुर्वत न करने योग्य,क्या कर्म किया ( कूबद की )
यह गीता के प्रथम अध्याय का प्रथम श्लोक है। जो धृतराष्ट्र के मुख से निकला पहला और अन्तिम यानी एक मात्र उवाच Quotations-dialogue है।
धृतराष्ट्र = धृत + राष्ट्र
धृत = Cocky गुस्ताख भी होता है। धृत का हिंदी में अधिकृत शब्द बना है। धृति-बल,धारणा-शक्ति [concept] इत्यादि ये सभी शब्द प्राकृत भाषा के धी से बने हैं। जिस का अर्थ होता है बँधी हुई बुद्धि। धृति का एक अर्थ कार्यकाल भी होता है।
राष्ट्र = मानव द्वारा अधिकृत या निर्मित या मान्यता प्राप्त भौगोलिक सीमा।
वर्तमान के शब्द कोष से व्याख्या करें तो राष्ट्रपति या राष्ट्राध्यक्ष कह सकते हैं।
क्षेत्र = भौगोलिक क्षेत्र, कार्याधिकार क्षेत्र और अध्ययन क्षेत्र ये तीन प्रकार के क्षेत्र के विषय होते हैं।
धर्म क्षेत्र कुरु क्षेत्र =
- ऐतिहासिक एवं अधि-भौतिक व्याख्या करें तो इसका अर्थ होता है वह क्षेत्र जो वर्षावन के रूप में धर्म क्षेत्र कहलाता है और गृहस्थ आश्रम वाला रहवासी क्षेत्र कर्म क्षेत्र कहा गया है। इन दोनों की सीमाओं के बीच वह क्षेत्र जो गौचर भूमि होती उस भूमि पर युद्ध हो रहा था।अतः वह धर्म और कर्म दोनों का क्षेत्र है।
- अधि-दैविक व्याख्या है कि जिस क्षेत्र [विषय] में धर्म + कर्म यानी उदेश्य +उपलब्धि, object + subject, mission + profession क्षेत्र को लेकर जो झगडा है उससे सम्बंधित युद्ध हो रहा था । आप यह जो कहावत कहते हैं "नेकी कर कुए में डाल" यह संस्कृत की कहावत "कुरू कुरू स्वाहाः" का ही शब्दानुवाद है, अर्थात कुरु शब्द कर्म का ही पर्यायवाची शब्द है। .... आप जो भी धार्मिक यानी मिशनरी कर्म करते हैं उस परियोजना मे जब तक व्यावसायिकता नहीं आएगी वह आत्म-निर्भर नहीं रहेगी और अपने लिए धन जुटाने के लिए अन्य पर निर्भर रहेगी और अन्ततः वह अपने उदेश्य तक नहीं पहुँच पाएगी अपवाद स्वरूप पहुँच भी गई तब भी स्थायित्व नहीं रहेगा। ......इसी तरह जब आप पूर्णतः व्यावसायिक होकर कामनाओं को पूरा करने हेतु काम करते हैं और उस काम के मिशन/धर्मं की अवहेलना कर देते हैं तब आप उस क्षेत्र में स्थायित्व प्राप्त नहीं कर सकते। ... यहाँ एक पक्ष स्वतंत्रता की लडाई का मिशन/उदेश्य लेकर चल रहा है जिसमे सभी सैनिक अपने अधिकारों के लिए कर्तव्य समझ कर लड़ रहे हैं,तो दुसरे पक्ष के साथ सिर्फ वे व्यावसायिक सैनिक हैं जिनका धन्धा / प्रोफेशन ही लड़ना होता है वे अपने प्रोफेशनल क्षेत्र में उपलब्द्धि को लेकर जीवन-संग्राम कर रहे होते हैं। ... यहाँ एक पक्ष के समर्थन में प्रकृति के प्रतिनिधि यानी विष्णु के अवतार हैं जो जीवन के मिशनरी पक्ष के प्रतिनिधि को समझा रहे हैं कि तूं इसे अपना धन्धा मान कर चल जब तक धन्धा नहीं करेगा तब तक जीवारी नहीं होगी ।
- अधि-आत्मिक [आध्यात्मिक] व्याख्या है कि एक पक्ष का स्वभाव,मनोविज्ञान,मानसिकता, अवधारणा यह है कि हमें चाहे पाँच गाँव ही दे देवें लेकिन हम राष्ट्रपति-शासन, धृतराष्ट्र-शासन, राज्य प्रशासन प्रणाली के अधीन नहीं रहेंगे, हम पंचायती राज पद्धति का स्वतन्त्र स्वाधीन क्षेत्र [धर्म क्षेत्र ] चाहते हैं, जहाँ प्राकृतिक नियमों पर चलने वाली शासन प्रणाली हो। जबकि दूसरा पक्ष मानव के स्व-अनुष्ठित धर्म यानी मानव निर्मित नियमो पर बने संविधान को सभी राष्ट्रवासियों पर लागू करना चाहता है। जिसमे धन का दुरूपयोग और दुःखदायी शासन प्रणाली है। जहां उदेश्य हीन व्यर्थ के कामों के प्रति उकसाते हैं और राष्ट्रधर्म के नाम पर एक ही प्रकार की जीवन-शैली सभी पर थोपना चाहते हैं।
युयुत्सवः = युयुः शब्द घोड़े के खड़े रहने के आचरण के लिए भी काम में लिया जाता है,घोड़ा नींद भी खड़े खड़े ही लेता है। युद्ध क्षेत्र में मरते दम तक घुटने नहीं टेकता, इसी तरह जीवन संग्राम में भी अपने पैरों पर खड़े रहा जाता है। यहाँ सभी लोग इस युद्ध में उत्सव मनाने जैसे उत्साह से इस उत्सुकता से लड़ रहें हैं कि देखें परिणाम क्या निकलता है!
यहाँ एक राष्ट्रपति है जो राष्ट्र की सत्ता अपने पुत्रों के हाथ में सोंपना चाहता है। जबकि वह उस परम्परा से है जो दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र भरत ने शुरू की थी कि गणराज्य में राज्य उत्तराधिकारी जनमत से चुना जाये, न कि अपनी सन्तान को उत्तराधिकारी बना कर राज्य पर थोपा जाये। लेकिन राष्ट्रपति की धृति राष्ट्र में पंचायती राज व्यवस्था के लिए पाँच गावों को भी स्वतंत्र,स्वाधीन और आत्म निर्भर स्वीकार नहीं कर पा रही है। सत्ता का उत्तराधिकारी भी अपनी सन्तान को बनाना चाहता है। अतः वह अँधा राष्ट्रपति,राष्ट्राध्यक्ष धृतराष्ट्र अपने सचिव सन्जय से,जो उसका वाहन चालक,ड्राईवर,सारथी भी है,से पूछ रहा है कि वहाँ क्या हो रहा है।
इस घटना के पाँच हजार वर्ष बाद आज हम पुनः उसी जटिल स्थिति में आगये हैं। जो धर्म और कर्म को उभयपक्षी/अद्वेत नहीं मानने से पैदा हो गयी है। एक तरफ कहा जाता है धर्म को राजनीति से अलग रखो जबकि दूसरी तरफ राजनीति को भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों का कर्म क्षेत्र माना जाता है।
राष्ट्र के कर्ता-धर्ता एक तरफ तो राष्ट्र और राष्ट्रीय संविधान का राग अलापते हैं, तो दूसरी तरफ गणराज्य भारत के गण [ ग्रामीण ] दरीद्रता और आभाव की सीमारेखा से भी नीचे गिर गए हैं। और संवैधानिक न्यायप्रणाली की स्थिति भी ऐसी है, जिसमे न्यायाधीश भी भीष्म, द्रोण, कृप की तरह वेतन भोगी होने के कारण दुर्योधनो और दुशासनों के खेमे में खड़े रहने को मजबूर हैं।
एक तरफ धर्म के नाम पर वैमनष्य फैला बढ़ा कर मानवता को ही नष्ट किया जा रहा है, तो दूसरी तरफ 5 % दुष्ट प्रवृति के लोगों के अधर्म और अन्याय के आचरण को रेखांकित करके, सामाजिक परम्पराओं को समाज का नासूर, कलंक इत्यादि कह कर लोग मसीहा बन रहे है।
एक तरफ मानव-धर्म के क्षेत्र में जितने तरह के अधर्म व् अन्याय होते हैं उन को बढ़ाने वाली व्यवस्था प्रणाली को लागू किया जाता है तो दूसरी तरफ विकास के नाम पर व्यर्थ के कर्म-क्षेत्र का विस्तार हो रहा है।
सभी परिस्थितियों को देखें तो आज हमें चाहिए कि हम सभी एकमत होकर कर एक ऐसी व्यवस्था प्रणाली को प्रतिष्ठित करें जो धर्म व् कर्म क्षेत्र में आ चुकी विषमताओं को सम में आप्त कर सके, धर्म क्षेत्र व् कर्म क्षेत्र को सम करके अद्वेत कर दे।
ॐ तत सत
आपने ऊपर श्र्चैव का अर्थ नही बताया। बताने की कृपा करें।
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